नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी के बाद केंद्र सरकार ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि वे सूचना प्रौद्योगिकी (IT) एक्ट की धारा 66-ए के तहत दर्ज मामलों को तत्काल प्रभाव से वापस लें। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों से अनुरोध किया है कि वे सभी पुलिस स्टेशन को निर्देश दें कि आईटी एक्ट की निरस्त हो चुकी धारा-66 ए के तहत कोई केस ना दर्ज की जाए।
गृह मंत्रालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आईटी अधिनियम की धारा 66 ए को खत्म करने के लिए 24 मार्च, 2015 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी आदेश के अनुपालन के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों को संवेदनशील बनाने के लिए भी कहा है। दरअसल हाल ही में 5 जुलाई को पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा एक याचिका दायर की गई, जिसमें बताया गया था कि इस धारा के निरस्त होने के सात साल बाद भी मार्च 2021 तक 11 राज्यों की जिला अदालतों में कुल 745 मामले अभी भी लंबित हैं। इन मामलों के आरोपियों पर आईटी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की ओर से दाखिल अर्जी में गुहार लगाई गई है कि केंद्र सरकार को निर्देश दिया जाए कि वह तमाम थाने को एडवाइजरी जारी करे कि 66 ए में केस दर्ज न किया जाए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट से उसे खारिज किया जा चुका है। साथ ही हाई कोर्ट से कहा जाए कि वह निचली अदालत में पेंडिंग केसों के बारे में जानकारी मांगें और सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट पर अमल के लिए कहें। साथ ही गृह मंत्रालय से कहा जाए कि वह देश भर के थानों को एडवाइजरी जारी करे कि 66ए के तहत केस दर्ज न हो। सोमवार को सुनवाई के दौरान जस्टिस रोहिंटन एफ नरीमन की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि ये आश्चर्य की बात है कि 2015 में श्रेया सिंघल संबंधित वाद में सुप्रीम कोर्ट ने 66 ए को निरस्त कर दिया था और फिर भी इस धारा के तहत केस दर्ज हो रहा है। ये भयानक स्थिति है।
क्या थी धारा 66 ए
आईटी एक्ट में धारा 66 ए को वर्ष 2009 में संशोधित अधिनियम के तहत जोड़ा गया था। धारा-66ए कहती है कि अगर किसी ने कंप्यूटर या मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का इस्तेमाल करके आपत्तिजनक या धमकी भरे संदेश दिए, जानबूझकर झूठी सूचना दी, ऐसा करके किसी को परेशान किया, अपमानित किया, शत्रुता, घृणा या दुर्भावना फैलाई, तो उसे दंडित किया जाएगा। ऐसे अपराध के लिए 3 साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया था। धारा 66 ए तब पुलिस को अधिकार देती थी कि वो कथित तौर पर आपत्तिजनक कंटेंट सोशल साइट या नेट पर डालने वालों को गिरफ्तार कर सकती थी. लेकिन अब पुलिस ऐसा नहीं कर सकती।
क्यों सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त किया था
सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च 2015 को अपने फैसले में कहा था कि धारा-66ए पूरी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है, इसलिए इसे निरस्त किया जाता है। साल 2012 में तत्कालीन शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के देहांत के बाद मुंबई में दुकानें बंद की गई थीं। फेसबुक पर इस घटना की निंदा होने लगी तो पुलिस ऐसे लोगों को धारा 66-ए के तहत गिरफ्तार करने लगी थी। तब कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने इस धारा के विरोध में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
अदालत ने कहा था कि ये कानून अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन करता है। अदालत ने कहा था कि एक्ट के प्रावधान में जो परिभाषा थी और जो शब्द थे वो स्पष्ट नहीं थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक कंटेंट जो किसी एक के लिए आपत्तिजनक होगा तो दूसरे के लिए नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बरकरार रखने वाले अपने एक ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने कहा था कि धारा 66 ए से लोगों के जानने का अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित होता है।
तत्कालीन जस्टिस जे. चेलमेश्वर और जस्टिस रॉहिंटन नारिमन की बेंच न कहा था कि यह प्रावधान साफ तौर पर संविधान में के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है। शीर्ष अदालत ने कहा था कि 66 ए का जो मौजूदा दायरा है वो काफी व्यापक है और ऐसे में कोई भी शख्स नेट पर कुछ पोस्ट करने से डरेगा। ये विचार अभिव्यक्ति के अधिकार को अपसेट करता है। ऐसे में 66ए को हम गैर संवैधानिक करार देते हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी जताई थी नाराजगी
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कुछ समय पहले इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए उत्तर प्रदेश पुलिस को कठघरे में खड़ा किया था। उसने ऐसी रिपोर्ट को रद्द कर दिया था। इसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पुलिस अफसरों पर भी कड़ी टिप्पणी की थी कि वो इस धारा के निरस्त होने के बाद भी इसके तहत प्राथमिकी कैसे दर्ज कर रहे हैं।