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चैत्र नवरात्रि: प्रथम मां शैलपुत्री जन्म कथा, जानिए इन दिनों में क्या नहीं करना है?

हिंदू धर्म में चैत्र नवरात्रि का विशेष महत्व माना गया है। पुराणों के अनुसार नवरात्रि माता भगवती की आराधना, संकल्प, साधना और सिद्धि का दिव्य समय है। नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा के अलग-अलग स्वरूपों की नौ दिन पूजा-अर्चना की जाती है। यूं तो साल में चार नवरात्रि आते हैं। चैत्र और शारदीय नवरात्रि के अलावा दो गुप्त नवरात्रि माघ और आषाढ़ नवरात्रि भी आते हैं। लेकिन चैत्र नवरात्रि और शारदीय नवरात्रि की मान्यता ज्यादा है। इस साल चैत्र नवरात्रि 13 अप्रैल से शुरू हो रहे हैं और जिनका समापन 22 अप्रैल को होगा। इसी के साथ ही संवत 2078 का आरंभ भी हो जाएगा, ऐसा इसलिए क्योंकि इसी दिन से हिंदू नव वर्ष की भी शुरुआत होती है। नवरात्रि के दिनों में कुछ नियमों का पालन करना बहुत ही जरूरी माना जाता है।

नवरात्रि के पहले दिन दुर्गाजी के प्रथम रूप माँ शैलपुत्री की उपासना की जाती है। शैल का मतलब है हिमालय और पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म लेने की वजह से इन्हें शैलपुत्री कहा जाता है। इन्हें भगवान् शंकर की पत्नी पार्वती के रूप में भी जाना जाता है। वृषभ (बैल) इनका वाहन होता है इसलिए इन्हें वृषभारूढा भी कहा जाता है। इनके दाएं हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल है। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं तब इनका नाम सती था। इनका विवाह भगवान शंकर जी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया जिसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया किन्तु शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया,सती ने जब सुना कि हमारे पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।

अपनी यह इच्छा उन्होंने भगवान शिव को बताई। भगवान शिव ने कहा-”प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं, अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।” शंकर जी के इस उपदेश से देवी सती का मन बहुत दुखी हुआ। पिता का यज्ञ देखने वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर शिवजी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी।

सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम से बातचीत नहीं कर रहा है। केवल उनकी माता ने ही स्नेह से उन्हें गले लगाया। परिजनों के इस व्यवहार से देवी सती को बहुत क्लेश पहुंचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहां भगवान शिव के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है, दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब दिखकर सती का ह्रदय ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा कि भगवान शंकर जी की बात न मानकर यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है। वह अपने पति भगवान शिव के इस अपमान को सहन न कर सकीं, उन्होंने अपने उस रूप को तत्काल वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया।

वज्रपात के समान इस दारुण-दुखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया। सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया इस बार वह शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हेमवती भी उन्हीं के नाम हैं। इस जन्म में भी शैलपुत्री देवी का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ।

चैत्र नवरात्रि के पहले दिन कलश स्थापना का महत्व शास्त्रों में भी वर्णित है। माना जाता है कि नवरात्रि के दौरान कलश स्थापना से शुभ फलों की प्राप्ति होती है। कलश स्थापना के साथ ही नवरात्रि के पहले दिन दुर्गाजी के प्रथम रूप माँ शैलपुत्री की उपासना की जाती है। इस दिन मिट्टी के पात्र में सात प्रकार के अनाज को मां दुर्गा का स्मरण करते हुए बोएं। इसके बाद इस पात्र के ऊपर कलश की स्थापना करें। कलश में गंगाजल भरकर उसपर कलावा बांधें। इसके मुख पर आम या अशोक के पत्ते रख दें। फिर जटा नारियल में कलावा बांधें। लाल कपड़े में नारियल को लपेट कर कलश के ऊपर रखें। आखिर में सभी देवी देवताओं का आह्वान करें।

मां शैलपुत्री की आरती

शैलपुत्री मां बैल असवार। करें देवता जय जयकार।
शिव शंकर की प्रिय भवानी। तेरी महिमा किसी ने ना जानी।

पार्वती तू उमा कहलावे। ‌ जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू। दया करे धनवान करे तू।

सोमवार को शिव संग प्यारी। आरती तेरी जिसने उतारी। ‌
उसकी सगरी आस पुजा दो। सगरे दुख तकलीफ मिला दो।

घी का सुंदर दीप जला‌ के। गोला गरी का भोग लगा के।
श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं। प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।

जय गिरिराज किशोरी अंबे। शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।
मनोकामना पूर्ण कर दो। भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।

मां शैलपुत्री मंत्र 

वन्दे वाच्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।

नवरात्रि के हर दिन देवी दुर्गा के एक रूप की पूजा होती है। देवी दुर्गा के नौ अलग-अलग रूप हैं- शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्रि।

पूजा का कार्यक्रम
13 अप्रैल, मंगलवार: चैत्र नवरात्रि प्रारंभ, माँ शैलपुत्री पूजा कलश स्थापना
14 अप्रैल, बुधवार: चैत्र नवरात्रि का दूसरा दिन- मां ब्रह्मचारिणी पूजा
15 अप्रैल, गुरुवार: चैत्र नवरात्रि का तीसरा दिन- मां चंद्रघंटा पूजा
16 अप्रैल, शुक्रवार: चैत्र नवरात्रि का चौथा दिन- मां कुष्मांडा पूजा
17 अप्रैल, शनिवार: चैत्र नवरात्रि का पांचवा दिन- मां स्कन्दमाता पूजा
18 अप्रैल, रविवार: चैत्र नवरात्रि का छठा दिन- मां कात्यायनी पूजा
19 अप्रैल, सोमवार: चैत्र नवरात्रि का सातवां दिन- मां कालरात्रि पूजा
20 अप्रैल, मंगलवार: चैत्र नवरात्रि का आठवां दिन- मां महागौरी की पूजा, दुर्गा अष्टमी, महाष्टमी
21 अप्रैल, बुधवार: राम नवमी, भगवान राम का जन्म दिवस, माँ सिद्धिदात्रि पूजा।
22 अप्रैल, गुरुवार: चैत्र नवरात्रि पारण

नवरात्रि के दिनों में क्या नहीं करना है,

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