बदायूं। अगस्त 1916 को सूफी संतों की सरजमीं के नाम से मशहूर बदायूं में ऐसे बच्चे ने जन्म लिया जिसने आगे चलकर जिले ही नहीं, बल्कि पूरे देश का नाम रोशन कर दिया। वह थे गफ्फार खान हालाँकि इस नाम से उनको शायद ही कोई जानता हो लेकिन शकील बदायूंनी के नाम से सब जानते हैं। हिंदी फिल्मों के गीतकारों और शायरों का जिक्र जब भी, जहां भी छिड़ेगा तो गीतकारे आजम शकील बदायूंनी का नाम जेहन में जरूर आएगा। आज शकील साहब का जन्मदिन है, शकील बदायूंनी ने अपने फिल्मी करियर में एक से एक हिट गाने दिए जिन्हें लोग आज भी बहुत ही चाव के साथ सुनते हैं।
शकील बदायूंनी का जन्म बदायूं जिले के मोहलला बेदो टोला में 1916 को शोखता खानदान में हुआ था। शकील साहब का संबंध अदबी, पढ़े-लिखे घराने से था. उनके पिता मोहम्मद जमाल अहमद साहब ने उन्हें अरबी, उर्दू, फारसी की तालीम दी। बचपन से ही उन्हें शायरी बहुत शौक था। वो उस वक्त के बड़े-बड़े उर्दू के शायर से शायरी के गुर सीखते थे। जिसमें जिया उल कादरी, अब्दुल गफ्फार, बाबू राम चंद्र जैसे दिग्गज शामिल थे। शकील अहमद का जब जन्म हुआ था तब किसे पता था कि उनकी स्याही में इतनी तपिश होगी कि जनपद को उनके नाम से पहचाना जाने लगेगा और वे कलम की रवानगी में वक्त के साथ शकील बदायूंनी बन जाएंगे। शकील बदायूंनी की इंटर तक की पढ़ाई शहर के ही हाफ़िज़ सिद्दीकी इस्लामियां इंटर कॉलेज में हुई, बाद में वे आगे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी चले गए और वहां पर हकीम अब्दुल वहीद अश्क बिजनौरी को अपना उस्ताद बना लिया।
इस दौरान मुशायरों में भाग लेना शुरू कर दिया। बस फिर क्या था जल्द ही उन्हें कविता में उभरती आवाज के रूप में पहचाना जाने लगा। अलीगढ़ में ही वह जब किसी मुशायरे में हिस्सा लेते तो उनके अशआर की जमकर तारीफ होती थी, उन दिनों शकील की मुलाकात प्रसिद्ध कवि जिगर मुरादाबादी से हो गई।
शकील बदायूंनी ने दिल्ली में 1943 में सप्लाई विभाग में क्लर्क की नौकरी की। इस दौरान भी उनको शायरी से बहुत लगाव रहा। इतना कि दिन में काम करते और रात में मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे। दिल्ली की अदबी दुनिया में उन्हें अच्छी खासी पहचान मिल गई थी। खुदा ने उनकी आवाज में वह जादू बख्शा था कि जब वह अपनी गजलें तरन्नुम में पढ़ते थे तो लोग उनको खूब दाद दिया करते थे। दिल्ली में ही शकील ने 946 में हुए मुशायरे में एक ऐसी ग़ज़ल पढ़ी, जिसने उनकी किस्मत ही बदल कर रख दी। उस ग़ज़ल के बोल थे कि “गम -ए -आशिक से कह दो कि आम तक ना पहुंचे… मुझे खौफ है कि तोहमत मेरे नाम तक ना पहुंचे।” वहां वाह-वाह की आवाज गूंजने लगी, इन्हीं आवाजों में एक आवाज मुंबई फिल्मकार अब्दुल राशिद कारदार थे।
अब्दुल राशिद कारदार से रहा नहीं गया तो मुशायरा खत्म होने के बाद शकील साहब से मिले और मुंबई आने की दावत दी। शकील साहब कुछ दिन बाद मुंबई में कारदार साहब से मिलने पहुंचे। कारदार साहब उस वक्त मशहूर और मारूफ संगीतकार नौशाद साहब के साथ काम किया करते थे। कारदार साहब शकील साहब को नौशाद साहब के पास ले गए. नौशाद साहब क्योंकि संगीत के साथ शायरी भी जानते थे. उन्होंने कहा कि कुछ सुनाइए मैं आपको एक धुन देता हूं। उस वक्त दर्द फिल्म के संगीत पर काम हो रहा था. शकील साहब ने चंद मिनटों में ही लिखा कि ‘हम दर्द का अफसाना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की एक आग लगा देंगे।’
नौशाद साहब को उनका यह शेर बहुत पसंद आया। इतना कि उन्होंने इस फिल्म के सारे गीत शकील साहब से लिखवाए। दर्द फिल्म का टुनटुन का गाया गीत ‘अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का’ ने शकील साहब को हिंदुस्तान में एक अलग पहचान दिला दी। शकील साहब का नौशाद साहब के साथ दर्द फिल्म से जो रिश्ता बना वो तब तक चला जब तक शकील साहब इस दुनिया में रहे। उन्होंने एक के बाद एक हिट फिल्मों के लिए गाने लिखे, जिनमें ऑस्कर अवॉर्ड जीत चुकी मदर इंडिया का गाना- ‘दुनिया में अगर आये हो तो जीना ही पड़ेगा’ खास है।
शकील बदायूंनी के बेहतरीन गानों में चौदहवीं का चांद, प्यार किया तो डरना क्या, न जाओ सैंया छुड़ा के बैयां कसम तुम्हारी, हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं और सुहानी रात ढल चुकी जैसे न जाने कितने ही गाने हैं, जिन्हें जब भी सुना जाए, हमेशा मन को मोह लेते हैं। वह जहां भी जाते तालियों की गूंज हर कोने से सुनाई देने लगती थी लेकिन एक बार शकील बदायूंनी के साथ कुछ ऐसा हुआ, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
शकील बदायूंनी की कविता और नगमों पर ताली बजाने वाली भीड़ में से एक शख्स ने भरी महफिल में खरी खोटी सुना दी थी। यह किस्सा एक बार अन्नू कपूर ने अपने एक शो में सुनाया था। अन्नू कपूर, मशहूर शायर निदा फाजली के हवाले से बताते हैं कि ग्वालियर में एक मुशायरे का आयोजन हुआ था। इस कार्यक्रम में शकील बदायूंनी ने भी अपनी कुछ नगमों को पेश किया। इस मुशायरे में नागपुर के मिर्जा दाग के एक शिष्य और वरिष्ठ कवि हजरत नातिक गुलाम भी शिरकत करने पहुंचे थे। सभी लोगों ने उनका बहुत ही शानदार तरीके से स्वागत किया।
शकील बदायूंनी इन बुजुर्ग के स्वभाव से शायद परिचित थे, वे उन्हें देखकर नातिक साहब का ही एक लोकप्रिय मत्ला पढ़ते हुए, ‘वो आंख तो दिल को लेने तक बस दिल की साथी होती है फिर लेकर रखना क्या जाने, दिल लेती है और खोती है’ आगे बढे लेकिन हजरत नातिक इस प्रशंसा स्तुति से खुश नहीं हुए। उनके माथे पर उन्हें देखते ही बल पड़ने लगे। वे अपने हाथ की छड़ी को उठा-उठा कर किसी स्कूली उस्ताद की तरह भारी आवाज में बोल रहे थे- बर्खुरदार मियां शकील, तुम्हारे तो पिता भी शायर थे और चाचा मौलाना जिया उल कादरी भी उस्ताद शाइर थे। तुमसे तो छोटी छोटी गलतियों की उम्मीद हमें न थी। पहले भी तुम्हें सुना-पढ़ा था मगर कुछ दिन पहले ऐसा महसूस हुआ कि तुम भी उन्हीं तरक्की पसंदों में शामिल हो गए हो जो रवायत और तहजीब के दुश्मन हैं। हजरत नातिक गुलाम ने यह बात सभी के सामने कही थी।
शकील ने हजरत नातिक की बात को हंसी में उड़ाते हुए कहा कि हो सकता है कि मुझसे कोई गलती हो गई हो। आप मुझे बता दें, मैं उसे दुरुस्त कर लूंगा। शकील की बात सुनकर नातिक ने उसने कहा कि अब कैसे सही करोगे, वो तो रिकॉर्ड हो चुका है और मैंने उसे रेडियो पर सुन भी लिया है।
हजरत नातिक ने आगे कहा कि ”बर्खुरदार आजकल तुम्हारा एक फिल्मी गीत रेडियो पर अक्सर सुनाई दे जाता है, उसे कभी कभार मजबूरी में हमें भी सुनना पड़ता है, उसका पहला शेर यों है, चौहदवीं का चांद हो या आफताब हो जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो’ मियां इन दोनों मिसरों का वजन अलग अलग है। यहां पहली लाइन में एक शब्द कम है। शायरी का मीटर जो है वो यहां ठीक नहीं है। पहली लाइन में अगर ‘तुम’ शब्द जोड़ देते तो यह ठीक होता। ये कुछ ऐसे होता- ‘तुम चौदहवीं का चांद हो या तुम आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो।’ कोई और ऐसी गलती करता तो हम नहीं टोकते, मगर तुम तो हमारे दोस्त के लड़के हो, हमें अज़ीज़ भी हो, इसलिए सूचित कर रहे हैं। बदायूं छोड़कर मुंबई में भले ही बस जाओ मगर बदायूं की विरासत का तो निर्वाह करो।”
यह सुनकर शकील बदायूंनी, हजरत नातिक गुलाम को अपनी सफाई में यह बताने की कोशिश कि अक्सर संगीतकार धुन का मीटर ठीक करने के लिए गाने के शब्दों को घटा या बढ़ा देते हैं लेकिन शकील डांट खाते रहे। उनकी दलीलें काफी सूचनापूर्ण और उचित थीं, लेकिन नातिक ने इन सबके जवाब में सिर्फ इतना ही कहा कि मियां हमने जो मुनीर शिकोहाबादी और बाद में मिर्जा दाग़ से सीखा है उसके मुताबिक तो यह गलती है और माफ करने लायक गलती नहीं है। हम तो तुमसे यही कहेंगे कि ऐसे पैसे से क्या फायदा जो रात दिन फ़न की कुर्बानी मांगे।
उस मुशायरे में नातिक साहब को भी शकील के बाद अपना कलाम पढ़ने की दावत दी गई थी। उनके कलाम शुरू करने से पहले शकील ने खुद माइक पर आकर कहा था, हजरत नातिक इतिहास के जिंदा किरदार हैं। उनका कलाम पिछली कई नस्लों से ज़बान और बयान का जादू जगा रहा है। कला की बारीकियां समझने का तरीका सिखा रहा है और मुझे जैसे साहित्य के नवागंतुकों का मार्ग दर्शन कर रहा है। मेरी गुजारिश है आप उन्हें उसी सम्मान से सुनें जिसके वे अधिकारी हैं।”
ऐसे थे शकील बदायूंनी और ऐसी थी उनके मन में बुजुर्गों के प्रति इज्जत। अपने इस शेर में उन्होंने शायद अपने किसी बुजुर्ग को ही याद किया होगा, ‘क्या कीजिए शिकवा दूरी का, मिलना भी गजब हो जाता है, जब सामने वो आ जाते हैं, अहसासे अदब हो जाता है।’
शकील साहब ने पूरी जिंदगी बहुत सादगी से गुजारी। उनके चेहरे पर हमेशा की मीठी मुस्कान हुआ करती थी और हमेशा वह पान खाया करते थे। चेहरा सुर्ख सफेद उनके सबसे करीबी दोस्तों में दिलीप कुमार साहब, जॉनी वॉकर, नौशाद साहब, मोहम्मद रफी हुआ करते थे. जब वक्त मिला करता था तो नौशाद साहब के घर की छत पर पतंग उड़ाया करते थे। शकील साहब ने 22 साल तक फिल्मी दुनिया में काम किया और अगर उनके जरिए लिखे गए गानों को फिल्मी इतिहास से हटा दें तो वो बहुत कमजोर पड़ जाएगा। जब जब भी फिल्मी इतिहास लिखा जाएगा तो उनका जिक्र जरूर आएगा।
पेश हैं शकील बदायूंनी के चुनिंदा शेर
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
अपनों ने नज़र फेरी
अपनों ने नज़र फेरी तो दिल तू ने दिया साथ
दुनिया में कोई दोस्त मिरे काम तो आया
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है
काँटों से गुज़र जाता हूँ
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ
काफ़ी है मिरे दिल की तसल्ली को यही बात
आप आ न सके आप का पैग़ाम तो आया
कल रात ज़िंदगी से
कल रात ज़िंदगी से मुलाक़ात हो गई
लब थरथरा रहे थे मगर बात हो गई
कोई ऐ ‘शकील’ पूछे ये जुनूँ नहीं तो क्या है
कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा
कोई दिलकश नज़ारा हो
कोई दिलकश नज़ारा हो कोई दिलचस्प मंज़र हो
तबीअत ख़ुद बहल जाती है बहलाई नहीं जाती
क्या हसीं ख़्वाब मोहब्बत ने दिखाया था हमें
खुल गई आँख तो ताबीर पे रोना आया
उन का ज़िक्र उन की तमन्ना
उन का ज़िक्र उन की तमन्ना उन की याद
वक़्त कितना क़ीमती है आज कल
उन्हें अपने दिल की ख़बरें मिरे दिल से मिल रही हैं
मैं जो उन से रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे
दुनिया की रिवायात से
दुनिया की रिवायात से बेगाना नहीं हूँ
छेड़ो न मुझे मैं कोई दीवाना नहीं हूँ
जाने वाले से मुलाक़ात न होने पाई
दिल की दिल में ही रही बात न होने पाई
जब हुआ ज़िक्र ज़माने में
जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
तुम फिर उसी अदा से अंगड़ाई ले के हँस दो
आ जाएगा पलट कर गुज़रा हुआ ज़माना
दिल की तरफ़
दिल की तरफ़ ‘शकील’ तवज्जोह ज़रूर हो
ये घर उजड़ गया तो बसाया न जाएगा
बदलती जा रही है दिल की दुनिया
नए दस्तूर होते जा रहे हैं
बुज़-दिली होगी
बुज़-दिली होगी चराग़ों को दिखाना आँखें
अब्र छट जाए तो सूरज से मिलाना आँखें
छुपे हैं लाख हक़ के मरहले गुम-नाम होंटों पर
उसी की बात चल जाती है जिस का नाम चलता है