बदायूं। शहर की जामा मस्जिद शम्सी बनाम नीलकंठ महादेव मंदिर बनाम जामा मस्जिद मामले में अब सुनवाई 10 दिसंबर को होगी। इस मामले में सरकारी पक्ष और पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट के आधार पर सरकार की ओर से बहस पूरी हो चुकी है। पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट भी कोर्ट में पूरी हो चुकी है। अब 10 दिसंबर को अदालत यह तय कर सकती है कि यह केस चलने लायक है या नहीं।
यह मामला सबसे पहले 2022 में चर्चा में आया था। तब अखिल भारत हिंदू महासभा के प्रदेश संयोजक मुकेश पटेल ने दावा किया था कि वर्तमान में जिस जगह पर बदायूं की जामा मस्जिद है वहां पहले नीलकंठ महादेव का मंदिर था। उन्होंने वहां पूजा-अर्चना की इजाजत के लिए अदालत में याचिका दायर की थी। याचिका में कहा गया कि जिस जगह जामा मस्जिद है वहां पहले नीलकंठ महादेव का मंदिर हुआ करता था। इसके पुख्ता सबूत भी मौजूद हैं। याचिका में कहा गया कि आज भी यहां मूर्तियां, पुराने खंभे और सुरंग मौजूद हैं। पहले यहां तालाब भी होता था। जब मुस्लिम आक्रांता आए तो मंदिर तोड़ा गया। यहां शिवलिंग मौजूद था जिसे फेंक दिया गया। बाद में दो संत उसे लेकर आए और थोड़ी दूर पर मंदिर बनाकर स्थापित किया। यहां आज भी पूजा होती है।
वहीं मुस्लिम पक्ष का कहना है कि यह मस्जिद 850 साल पुरानी है। तब वहां कोई मंदिर मौजूद नहीं था। जामा मस्जिद को गुलाम वंश के सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने 1223 ईसवी में अपनी बेटी राजिया सुल्तान की पैदाइश पर इस मस्जिद का निर्माण कराया था। राजिया सुल्तान पहली मुस्लिम शासक बनी। जामा मस्जिद की इंतजामिया कमेटी के सदस्य और मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ता असरार अहमद का कहना है कि हमारा 1272 बंदोबस्त होता है। इसमें इंदराज (मालिकाना हक) लिखा होता है, वो हमने दाखिल किया है। ये सरकारी दस्तावेज है, जिसमें मालिकाना हक जामा मस्जिद लिखा हुआ है। दूसरे पक्ष के पास कोई सबूत नहीं है। इस मामले में कोर्ट में सरकारी पक्ष और पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट के आधार पर मुकदमे में सरकार की ओर से बहस पूरी हो चुकी है। पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट भी कोर्ट में पेश हो चुकी है। वहीं शाही मस्जिद कमेटी की तरफ से भी बहस पूरी कर ली गई है। पुरातत्व विभाग ने इसे राष्ट्रीय धरोहर बताया। साथ ही कहा कि राष्ट्रीय धरोहर से 200 मीटर तक सरकार की जगह है।
क्या कहते हैं दस्तावेज?
साल 1879 में प्रकाशित रुहेलखण्ड डिविजन के पार्ट 1 के उत्तर-पश्चिमी भारत का वर्णनात्मक और ऐतिहासिक विवरण खंड 5 के पेज नम्बर 158-159 में बताया गया है कि जामा मस्जिद पुराने शहर के ऊंचे हिस्से में स्थित है, उस वार्ड में जिसे अब मौलवी टोला के नाम से जाना जाता है। मस्जिद से जुड़ा एक बाहरी आंगन है जिसमें एक टैंक है। परिसर का कुल क्षेत्रफल 72,720 वर्ग फीट है। मस्जिद को उसी स्थान पर खड़े एक प्राचीन हिंदू मंदिर और छात्रावास से बदला गया या उससे बनाया गया था। इसमें पहला विकल्प अधिक संभावित प्रतीत होता है क्योंकि मुसलमान आक्रमणकारी ने शायद ही कभी किसी विधर्मी मंदिर को नष्ट करने की जहमत उठाई हो, जिसे इस्लामिक उपयोग के लिए बदला जा सकता था। मूल मंदिर की नींव किले की तरह थी, जिसकी स्थापना कभी बुद्ध(अहीर सरदार राजा बौद्ध) और कभी अजयपाल द्वारा की गयी थी। यह मंदिर सोमनाथ को समर्पित था। इसमें नीलकंठ महादेव नामक एक मूर्ति थी जिसका अर्थ है नीली गर्दन वाले शिव भगवान। मंदिर से जुड़े छात्रावास या धर्मशाला में एक कुआं था जो अभी भी अस्तित्व में है। हालाँकि पूर्व मंदिर की नींव पर संदेह हो सकता है पर यह निश्चित है कि वर्तमान मस्जिद का निर्माण रूकुनुद्दीन ने किया था। रूकुनुद्दीन 1228 से 1230 तक बदायूं का गवर्नर था। अपने पिता शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के बाद दिल्ली के सिंहासन पर बैठा था। चूँकि यह मस्जिद शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के शासन काल में बनाई गयी थी, इसे कभी-कभी ‘शम्सी’ मस्जिद कहा जाता है। मस्जिद के बाहरी प्रवेश द्वार पर एक अरबी शिलालेख है जिसका अनुवाद इस प्रकार किया गया है: – “शांति के साथ प्रवेश करो! महान सुल्तान, जो राष्ट्रों पर शासन करते हैं, शम्स-उद-दुनिया-वा-दीन, इस्लाम और मुसलमानों के सहायक, न्यायप्रिय शासकों और राजाओं में सर्वश्रेष्ठ, अबुल मुज़फ्फर इल्तुतमिश, सम्राट, जो ईमान वालों के नेता के सहायक हैं (ईश्वर उनके राज्य को चिरस्थायी बनाए!)। यह पवित्र रमज़ान के महीने में, वर्ष 628 हिजरी (नवंबर 1230 ईस्वी) में बनाया गया।
इसमें आगे लिखा गया है कि कहा जाता है कि जब पुराने मंदिर को मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त या परिवर्तित किया गया तो नीलकंठ भगवान शिव और उनके अन्य साथी देवताओं को पास के कुओं में छिपा दिया गया। हिंदुओं का मानना है कि वे मूर्तियाँ आज भी मौजूद हैं, हालाँकि वे कुएँ अब पुराने किले के खंडहरों के नीचे दबे हुए हैं। 1571 ई. में जब एक बड़े अग्निकांड में मस्जिद का गुंबद गिर गया तो उस समय बदायूं के गवर्नर कुतुब-उद-दीन खान ने अपने बेटे रिश्वर खान को इसे मरम्मत करवाने का आदेश दिया। मस्जिद के प्रवेश द्वार के दोनों ओर लिखे शिलालेख बताते हैं कि यह मरम्मत कार्य 1604 ई. में पूरा हुआ।
ब्रिटिश काल 1907 के गजेटियर में मंदिर का जिक्र
ब्रिटिश काल में 1907 में गजेटियर प्रकाशित हुआ था। गजेटियर किसी क्षेत्र के बारे में सरकारी दस्तावेज़ होता है। इसमें उस क्षेत्र की भौगोलिक और प्राकृतिक विशेषताओं के साथ-साथ, वहां रहने वाले लोगों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक जीवन का विस्तृत विवरण होता है। इस गजेटियर के 187-190 पेज नम्बर पर लिखा है कि बदायूं की सबसे पुरानी मुस्लिम इमारत शायद शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश की ईदगाह है। वह बदायूं के पहले गवर्नर थे और 1202 से 1209 ई. तक यहाँ की कमान संभालते थे। यह इमारत पुराने शहर के पश्चिमी किनारे से लगभग एक मील की दूरी पर स्थित है। ईदगाह एक विशाल ईंट की दीवार से बनी है, जिसकी लंबाई 300 फीट है और इसके ऊपर सजावट की कुछ रेखाएँ हैं। केंद्र में स्थित मेहराब के ऊपर एक लंबा शिलालेख है, लेकिन वह प्लास्टर से ढका हुआ है और केवल कुछ ही अक्षर दिखाई देते हैं। मिम्बर (मस्जिद का उपदेश मंच) के दाईं ओर एक टूटे हुए शिलालेख का हिस्सा है, जो संभवतः कुरान का कोई अंश है। इसके पास ही बद्र-उद-दीन हजरत विलायत को समर्पित एक प्राचीन दरगाह है, जो मोटी सफेदी से ढकी हुई है। इसमें तीन अरबी शिलालेख हैं, जिनमें से दो अकबर के समय के हैं और 981 हिजरी (इस्लामी कैलेंडर) के हैं। तीसरा शिलालेख 391 हिजरी का माना जाता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से गलत है, क्योंकि यह महमूद गज़नवी के हमले से 18 साल पहले का समय दर्शाता है।
यह मस्जिद पुराने शहर के ऊंचे हिस्से मौलवी टोला मोहल्ले में स्थित है और इसकी ऊंची स्थिति इसे कई मील दूर से परिदृश्य का सबसे प्रमुख स्थान बनाती है। इसे एक प्रसिद्ध पत्थर के मंदिर, नीलकंठ महादेव के मंदिर, की जगह पर बनाया गया था। यह मंदिर ईशान शिवा नामक मठ प्रमुख ने लक्ष्मणपाल के शासनकाल के दौरान बनवाया था। इल्तुतमिश ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया और उसके पत्थरों का उपयोग मस्जिद के निर्माण में किया। कई सुंदर नक्काशीदार मूर्तियां, स्तंभ और पत्थर मस्जिद की दीवारों में साधारण निर्माण सामग्री के रूप में लगाए गए। मस्जिद उत्तर से दक्षिण तक लगभग 280 फीट और पश्चिमी बाहरी दीवार से पूर्वी गेट तक लगभग 226 फीट की लंबाई में फैली है। आकार में, यह जौनपुर की मस्जिदों की बराबरी करती है और भारत की सबसे बड़ी इस्लामी इमारतों में गिनी जाती है। इसका नक्शा एक अनियमित आयताकार है, जो पूर्वी तरफ सड़क के पास चौड़ा होता है। मस्जिद का आंगन पश्चिम में 176 फीट, पूर्व में 176 फीट, दक्षिण में 109 फीट 6 इंच और उत्तर में 98 फीट है। इसके केंद्र में एक टैंक है, जो लगभग 28 फीट वर्गाकार है, और उत्तर-पूर्व में एक कुआं है।आंगन के पश्चिमी हिस्से में मुख्य मस्जिद स्थित है, जिसकी गहराई 75 फीट है और यह पूरी इमारत की चौड़ाई में फैली हुई है। इसे तीन हिस्सों में विभाजित किया गया है। बीच का कक्ष 43 फीट 3 इंच का चौकोर है, जिसकी दीवारें 16 फीट मोटी हैं और इसे एक बड़े गुंबद से ढका गया है। इसके दोनों तरफ लंबे गलियारे हैं। उत्तरी गलियारा 78 फीट लंबा और 58 फीट चौड़ा है, जबकि दक्षिणी गलियारा 90 फीट लंबा और 58 फीट चौड़ा है। प्रत्येक गलियारे को लंबाई में पाँच हिस्सों और चौड़ाई में चार हिस्सों में विभाजित किया गया है। ये विभाजन भारी स्तंभों द्वारा किए गए हैं, जो 9 से 10 फीट की दूरी पर चूना पत्थर और ईंटों से बने हैं और छत को सहारा देते हैं। गलियारों के दोनों सिरों पर खिड़कियां हैं, और पश्चिमी दीवार में ऊंचाई पर छोटी झिर्रियों के माध्यम से रोशनी अंदर आती है। बीच का कक्ष अंदर से 69 फीट ऊंचा है, लेकिन फर्श से 31 फीट ऊपर यह अष्टकोणीय आकार का हो जाता है, जिसमें दीवारें मेहराबदार और अंदर धंसी हुई हैं। इस कक्ष की दीवारों में पूरब, उत्तर और दक्षिण की ओर 18 फीट चौड़ी मेहराबदार खिड़कियां हैं। पश्चिमी दीवार में एक गहरी मिहराब है, जिसके दोनों ओर दो छोटी नक्काशीदार स्तंभ हैं, जो संभवतः पुराने हिंदू मंदिर से लिए गए थे। मस्जिद के पूरब की मुख्य मेहराब अब एक बड़े प्रांगण (प्रोपीलोन) से ढकी हुई है, जो गुंबद को भी छिपा देती है।
यह संरचना 52 फीट 4 इंच ऊंची और 61 फीट 6 इंच चौड़ी है। इसके केंद्र में एक बड़ा मेहराब है, जो 35 फीट 6 इंच ऊंचा है, और इसके भीतर दूसरा मेहराब है, जिसकी ऊंचाई 26 फीट 10 इंच है। यह मेहराब मुख्य कक्ष तक पहुंच प्रदान करता है। इस मेहराब पर सुंदर ईंट की नक्काशी की गई है, जो मस्जिद की सबसे आकर्षक विशेषताओं में से एक है। हालांकि, समय-समय पर लगाए गए प्लास्टर और सीमेंट ने इसके अधिकांश हिस्से को ढक दिया है। यह प्रांगण 1604 में शेख खुबू कोका द्वारा जोड़ा गया था, जो जहाँगीर के दूधभाई थे। इसका उल्लेख भीतरी मेहराब के दाईं ओर एक शिलालेख में मिलता है। मस्जिद का गुंबद, जो ज़मीन से लगभग 90 फीट ऊंचा है (इसमें सुनहरा शिखर भी शामिल है), 1671 में शेख खुबू या कुतुब-उद-दीन खान द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था। यह कंकड़ पत्थरों से बना है, जिन्हें मस्जिद की निचली परतों में भी उपयोग किया गया है, जबकि बाकी हिस्से ईंटों से बने हैं, जिन पर नक्काशी या नीले एनामल टाइल्स की सजावट की गई है। आंगन के चारों ओर (उत्तर, दक्षिण और पूर्व दिशा में) बरामदे हैं, जिन्हें स्तंभों से दो गलियारों में विभाजित किया गया है और ईंट की घुमावदार छतों से ढका गया है। उत्तर और दक्षिण के कोनों में गुंबद थे, और प्रत्येक प्रवेश द्वार (उत्तर, दक्षिण और पूर्व) के पीछे भी एक गुंबद था। इन बाहरी इमारतों की हालत खराब हो गई थी, लेकिन हाल के वर्षों में बदायूं के मुस्लिम समुदाय ने इनका अच्छी तरह से जीर्णोद्धार किया है, जो उनके समर्पण का प्रतीक है।
इन मरम्मत कार्यों में कई जगहों पर पूरी पुनर्निर्माण करना पड़ा। केवल पूर्वी प्रवेश द्वार ही मूल रूप में खड़ा रह गया था, लेकिन इसे भी अधिक सुरक्षा के लिए गिराकर फिर से बनाया गया। इस प्रवेश द्वार के ऊपर दो पंक्तियों का एक शिलालेख है, जिसमें 620 हिजरी का वर्ष दर्ज है, जब अल्तमश का शासन था। मस्जिद का निर्माण कार्य सुल्तान के बेटे रुक्न-उद-दीन की देखरेख में हुआ था। उत्तरी प्रवेश द्वार के ऊपर एक और शिलालेख दर्ज है, जो बताता है कि मस्जिद का जीर्णोद्धार 1326 में मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में किया गया था। मस्जिद की बाहरी दीवारें बहुत साधारण हैं, जिनमें केवल ईंट की साधारण नक्काशीदार रेखाओं से सजावट की गई है। हालांकि, चार कोनों पर बनी छोटी मीनारें भौमितिक नक्काशी के विभिन्न डिजाइनों से समृद्ध रूप से सजाई गई हैं। मस्जिद के दरवाजे से एक लोहे की जंजीर जुड़ी हुई है, जिसे पुराने समय में अपराधियों की परीक्षा के लिए उपयोग किया जाता था। ऐसा माना जाता था कि दोषी व्यक्ति के स्पर्श से यह जंजीर सिकुड़ जाती थी, जबकि निर्दोष व्यक्ति इसे बिना किसी हानि के छू सकता था। एक सामान्य मान्यता यह भी है कि जब पुराना मंदिर मुसलमानों द्वारा गिराया गया, तब नीलकंठ महादेव और अन्य देवताओं की प्राचीन मूर्तियां एक कुएं में छिपा दी गई थीं। हालांकि वे मूर्तियां अब तक नहीं मिली हैं।
क्या है ASI रिपोर्ट?
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण(ASI) ने ने 1875 से 1877 तक बदायूं से बिहार तक सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट को ASI के तत्कालीन डायरेक्टर अलेक्जेंडर कनिंघम ने बनाया था। इस रिपोर्ट में लिखा है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने बदायूं को अपना मुख्यालय बनाया। बदायूं का पहला गवर्नर शमसुद्दीन अल्तमश था, जो बाद में दिल्ली का राजा बना लेकिन बदायूं में उसकी दिलचस्पी दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के बाद भी बनी रही। 5 साल बाद उसने अपने बड़े बेटे रुकनुद्दीन फिरोज को बदायूं का गर्वनर बनाया।
रिपोर्ट में आगे लिखा है ब्राह्मणों के अनुसार बदायूं का पहला नाम बेदामऊ या बदामैया था। तब तोमर वंश के राजा महिपाल ने यहां एक बड़ा किला बनवाया, जिस पर अब शहर का एक हिस्सा खड़ा है। कई मीनारें अभी भी बनी हैं। यह भी कहा जाता है कि महिपाल ने हरमंदर नाम का एक मंदिर बनवाया था, जिसे मुसलमानों ने नष्ट कर दिया था। इसके स्थान पर वर्तमान जामा मस्जिद बनवाई थी। लोग इस बात पर एकमत हैं कि मंदिर की सभी मूर्तियां, मस्जिद के नीचे दबी थीं।
इसके अलावा बदायूं जिला सूचना एवं जनसंपर्क कार्यालय द्वारा प्रकाशित पुस्तिका में पेज नंबर 12 से 14 तक लिखा है कि गुप्त काल में यह नगर वेदामऊ नाम से जाना जाने लगा। उस समय लखपाल यहां का राजा था। इसी समय में ईशान शिव नामक मठाधीश ने विशाल शिव मंदिर की स्थापना कराई, जो नीलकंठ महादेव और बाद में इशान महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता रहा। साल 1175 में राजा अजयपाल ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। 202 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बदायूं पर अधिकार कर मुसलमान गुलामवंश राज्य की स्थापना की।
बदायूं को पश्चिमी क्षेत्र के सूबेदार की राजधानी बनाया। कुतुबुद्दीन के दामाद अल्तमश बाद में बदायूं के सूबेदार बने। उन्होंने नीलकंठ महादेव के मंदिर को ध्वस्त कर जामा मस्जिद शम्सी की तामीर (स्थापना) कराई। यह आज भी मौजूद है। बाद में अल्तमश ने ही जामा मस्जिद के नजदीक दीनी तालीम के लिए मदरसा की स्थापना कराई, जो आज भी मदरसा आलिया कादरि नाम से मौजूद है। उसने ही ईदगाह तामीर कराई, जो आज भी है।